नागपत्री एक रहस्य(सीजन-2)-पार्ट-26
इतने सोच विचार के साथ उलझे मन से तुम्हारा यू मंदिर में आना आखिर क्या बात है लक्षणा?? इतना संचय क्यों?? कहते हुए चित्रसेन जी ने कदंभ और लक्षणा की और प्रश्नवाचक चिन्ह की तरह देखा। और उनको प्रसाद देते हुए बैठने को कहा। तभी अचानक मंदिर में रखा शंख अपने स्थान पर एक चक्र की तरह घूम कर पुनः स्थापित हो गया। जिसे देख चित्रसेन जी पुनः लक्षणा की और देख कहने लगे,,,,,, लक्षणा शक्तियों का संचय का सौभाग्य अवश्य ही विरले भक्तों को ही मिलता। लेकिन यदि उन पर या उनकी शक्ति पर एक शून्य मात्र भी अविश्वास हो तो वह पूर्ण रुप से सार्थक परिणाम नहीं देती और उसमें त्रुटि शक्तियों की नहीं, वरन साधक की मानी जाएगी।
लक्षणा तुम यदि मेरी मानो तो ज्यादा अच्छा होगा, मन से संचय निकालो या अविश्वास हटाओ और पूर्ण मन से उन शक्तियों पर विश्वास करो, क्योंकि वह तुम्हारे लिए उस अलौकिक जगत से सिर्फ मातृकृपा को मान तुम्हारे साथ तुम्हारे लक्ष्य पूर्ति हेतू हर पल है ।
लक्षणा मैं तुम्हें बार-बार इस बात के लिए चेतावनी नहीं दे पाऊंगा। क्योंकि यदि एक बार साधक के मन से विश्वास हट जाए तो शक्तियां चाह कर भी उस साधक की मदद नहीं कर सकती। यह कहते हुए उन्होंने लक्षणा की ओर देखा। लेकिन तब भी शायद लक्षणा कहीं और मग्न थी। इसका मुख्य कारण हो सकता है। वह बहुत दिनों पश्चात अपनी नानी के घर से आई थी। इसलिए शायद वहां की घटनाओं को लेकर और या फिर नानी को छोड़कर आने का कारण भी हो सकता था।
"कुछ भी कहो मानवीय जीवन ऐसा ही है। वातावरण में परिवर्तन बहुत दिनों तक साथ में रहने के पश्चात किसी को छोड़ कर आना दुखदाई होता ही है" । फिर नानी से तो उसका लगाव स्वाभाविक ही था। उसकी ऐसी स्थिति को देखकर चित्रसेन जी ने जाने से लेकर नागराज के प्रथम दर्शन, कुशलक्षेम और अन्य जानकारियों के साथ बात की शुरुआत की और लक्षणा की मन की स्थिति जानना चाहा।
पूर्ण रूप से निश्चित हो जाने पर कि अब लक्षणा सामान्य स्थिति में है। उन्होंने शक्तियों के बारे में चर्चा करनी चाही, जो उन्हें अबतक इस दौरान प्राप्त हुई। जिसे विस्तारपूर्वक घटित घटनाओं के साथ लक्षणा और कदंभ ने सुनाया । तभी अचानक उनकी नजर मन्दिर के पश्चिम द्वार पर स्थित एक नई शीला पर गई। जिसे देखकर कदंभ ने चौंककर उस विषय में चित्रसेन जी से सवाल किया जिसके जवाब में चित्रसेन जी ने उन्हें बताया। पिछली बार जो कि लक्षणा को हानि पहुंचाने के लिए थी। उसी की प्रत्युत्तर और सावधानी के दृष्टिकोण से इस मंदिर को पूर्ण संरक्षण स्वयं गुरुदेव के द्वारा अभिमंत्रित कर प्रदान किया गया।
अब दोबारा कोई भी बाहरी शक्ति किसी भी मार्ग से अर्थात् आकाश, जल, थल, वायु, पाताल इत्यादि किसी भी माध्यम से इस मंदिर के भीतर प्रवेश नही कर सकते। ऐसी व्यवस्था गुरुदेव के द्वारा बनाई गई हैं। यदि कोई भी इस सीमा को पार करने का प्रयास करेंगे तो वह वही जलकर भस्म हो जाएगा।
लक्षणा हां कल ही तड़के सुबह तुम्हारी शिक्षा एक नए सिरे से प्रारंभ करने का आदेश प्राप्त हुआ है। जिससे तुम्हें मार्ग में आने वाली कठिनाइयों के साथ अचानक प्रकट हुई शक्तियों उनके व्यवहार और उनके प्रभाव को नष्ट करने के विषय में जानकारी दी जाएगी। इसलिए कल प्रातःकाल सूर्य उगने से पूर्व यहां पर पूर्ण तैयारी के साथ उपस्थित हो जाना, यह कहते हुए उन्हें अगली सुबह आने का कह वापस जाने का आदेश चित्रसेन जी ने दिया।
लेकिन ना जाने क्यों लक्षणा अब तक पलट पलटकर उस नए स्तंभ बार-बार देख रही थी। और याद कर रही थी कि उसने इसके पूर्व आखिर यह स्तंभ को कहां देखा था?? यही सोच के साथ लक्षणा अपने घर लौट आई ।लक्षणा अकेले में अब तक घटित सभी घटनाओं का विचार करने लगीं।उसे ना जाने क्यों इस बात पर यकीन नहीं हो रहा था कि कभी कोई घटना उसके साथ घटित हुई, क्योंकि वास्तव में उस दिन की घटना को उसके जेहन से मिटा ही दिया गया था। गुरुदेव नहीं चाहते थे कि किसी भी प्रकार की कोई भी आशंका लक्षणा के दिलों दिमाग में शेष बनी रहे।
इस स्थिति में लेकिन क्योंकि कोई भी साधक भय के साथ अपनी भक्ति को पूर्ण नहीं कर सकता। लक्षणा को ठंडी हवा के झोंकों ने उसके लिए एक भ्रम पैदा किया। वह उसे आसमान के तारों में अचानक हलचल नजर आने लगी। वह उठकर जैसे ही खिड़की के पास आई। पानी की फुहार वायु के झोंकों के साथ उसके चेहरे से टकराई और उसे बड़ा ही जाना पहचाना एक शब्द सुनाई दिया। लक्षणा..... लक्षणा...... उसने बहुत कोशिश की लेकिन आसपास किसी को भी ना देख उसे लगा जैसे यह कोई भ्रम है, और वह सब कुछ भूल जाकर सो गई।
अगली सुबह खिड़की पर दस्तक के साथ कदंभ को देख वह जल्दी-जल्दी तैयार हो यज्ञ विधि की ओर पहुंची। वहां जाकर लक्षणा ने देखा कि गुरुदेव ने पूर्व से ही सारी यज्ञशाला का निर्माण कर लिया है। अग्नि के आह्वान के साथ लक्षणा के जाते ही एक विशेष आसन पर उसे बैठने का कहे, गुरुदेव ने बिना किसी बातचीत के यज्ञ की शुरुआत कर दी।
देखते ही देखते आग की लपटों में अनेकों चित्र उभरने लगे और कदंभ मानव रूप ले चित्रसेन जी के साथ लगातार उस यज्ञ की अग्नि को और तेज, और तेज, प्रज्वलित करने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे गुरुदेव अग्नि पटल पर छवि दिखा दिखा कर लक्षणा को समझा रहे थे। उस धधकती ज्वाला में अनेकों चित्र उभरकर सामने आए। जिनका परिचय गुरुदेव ने कारण और उनसे बचने, उनके गुण, अवगुण और साथ ही साथ उन्हें प्रसन्न करने के तरीके भी सिखाए गए, क्योंकि सभी शक्तियों का दमन आवश्यक नहीं होता।
लक्षणा ने पहली बार अपनी शिक्षा अग्नि पटल पर प्राप्त की थी। या उसके लिए एक विचित्र और नया अनुभव था। कभी कबार वह रह रहकर अत्यंत भयानक दृश्य तो देख सहम जाती। तो वही अत्यंत सौम्य स्वरूप को देख वह प्रफुल्लित हो उठती। लेकिन मंत्रोच्चार के बीच जो धुंआ और आग की लपटे उठती वह जैसे उसके सारे डर को जलाकर राख कर देती।
उस यज्ञ भूमि में आज दी जाने वाली आहुतियों जैसे उसे अत्यंत बल प्रदान कर रही थी। उसने पहली बार अपने अंदर की ऊर्जा को नियंत्रित करना अपनी इच्छानुसार इस्तेमाल करना और उनका सही समय पर सही उपयोग करना सीखा था। अब उसके मन की सारी आशंकाएं समाप्त होते कि वह किसी शूरवीर की तरह चमकते चेहरे के साथ में अपना पूर्ण योगदान दे रही थी। उसका आत्मविश्वास गुरुवर भाप गए थें।
लक्षणा अब अपने अगले कदम के लिए पूर्ण रूप से तैयार है। तब उन्होंने अपना अंतिम अस्त्र जो अब तक उन्होंने संपूर्ण जीवन की तपस्या से प्राप्त किया था। एक विशेष नागमणि जो किसी भी सामान्य मनुष्य का स्वरूप प्राप्त कर लेने की शक्ति प्रदान करता है, वह लक्षणा को सौंप, जिसे प्राप्त कर अब लक्षणा इच्छा अनुसार किसी रूप लेने पूर्ण सक्षम हो गई।
क्रमशः....